भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पोशीदा देखती है किसी की नज़र मुझे / 'वहशत' रज़ा अली कलकत्वी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पोशीदा देखती है किसी की नज़र मुझे
देख ऐ निगाह-ए-शौक तू रूसवा न कर मुझे

मक़सद है बे-नियाज़ रहा ज़ौक़-ए-जुस्तुजू
मैं बे-ख़बर हुआ जो हुई कुछ ख़बर मुझे

मैं शब की बज़्म-ए-ऐश का मातम-नशीं हूँ आप
रो रो के क्यूँ रूलाती है शम्मा-ए-सहर मुझे

हैरत ने मेरी आईना उन को बना दिया
क्या देखते के रह गए वो देख कर मुझे

क़ुर्बान जाऊँ छोड़ तकल्लुफ़ की गुफ़्तुगू
कह कर पुकार ‘वहशत’-ए-शोरीदा-सर मुझे