|संग्रह=एक खिड़की आठ सलाखें / रति सक्सेना
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
१
१<br>एक खिड़की और ८ सलाखें, आठ भागों में कटानारियल वृक्ष का तना, पीछे से झाँकती कटहल की एक शाख, ढ़ेर सारे पत्तेचिड़िया चहचहाई, पड़ोस से किसी बच्चे के रोने की आवाजएक हवाई जहाज गुजराएक दिन पूरा हो गया।
एक खिड़की और ८ सलाखें,आठ भागों में कटा<br>नारियल वृक्ष का तना, पीछे से झाँकती <br>कटहल की एक शाख, ढ़ेर सारे पत्ते<br>चिड़िया चहचहाई, <br>पड़ोस से किसी बच्चे के रोने की आवाज<br>एक हवाई जहाज गुजरा<br>एक दिन पूरा हो गया। <br><br>२
२<br>खजुराहो की भंगिमाओं के बीच, कलम से भरा जारबस्तर का घोटुल, दिल्ली का कलमदानखिड़की की सिल पर, पूरा देश बस गयाठहरोसलाखों से लटकते गुजरात की पुतलियों की ओरकिसी का ध्यान तो गया नहीं।
खजुराहो की भंगिमाओं के बीच, कलम से भरा जार<br>बस्तर का घोटुल,दिल्ली का कलमदान<br>खिड़की की सिल पर,पूरा देश बस गया<br>ठहरो<br>सलाखों से लटकते गुजरात की पुतलियों की ओर<br>किसी का ध्यान तो गया नहीं। <br><br>३
३<br>यदि यह खिड़की नहींचित्र होता?तो पत्ते हवा में हिलते नहींचिड़ियों की चहचहाटें सुनाई नहीं देतींतब शायद मैं खिड़की के अन्दर नहींबाहर होती
यदि यह खिड़की नहीं<br>चित्र होता?<br>तो पत्ते हवा में हिलते नहीं<br>चिड़ियों की चहचहाटें सुनाई नहीं देतीं<br>तब शायद मैं खिड़की के अन्दर नहीं<br>बाहर होती<br><br>४
४<br><br>मैं खिड़की के पीछे हूँखिड़की मेरे सामने हैदोनो क्या एक बात है?
मैं खिड़की के पीछे हूँ<br>खिड़की मेरे सामने है<br>दोनो क्या एक बात है?<br><br>५
खिड़की के सामने एक घर है
घर की दहलीज पर एक सारस
पंख खुले हैं, गर्दन उठी
वह उड़ना चाहता है
किन्तु
पंजे सीमेंट में धँसे हैं
मेरा शरीर कसमसाने लगा
५ <br>६
खिड़की के पार मकान
मकान के उस पार फिर मकान
फिर कहीं जाकर एक घाटी है
घाटी हवा गेन्द की तरह घूमती है
उछल कर कूद आती है खिड़की से
मैं और खिड़की के सामने एक घर है<br>घर की दहलीज पर एक सारस<br>पंख खुले हैं,गर्दन उठी <br>वह उड़ना चाहता है<br>किन्तु<br>पंजे सीमेंट में धँसे हैं<br><br>दोनों खिलखिला उठते हैं।
७
मेरा शरीर कसमसाने लगा<br><br>जैसे ही खिड़की खुलती हैमेरी बंद साँस चलने लगती है।
८
६ <br>रात में देखे गए सपने का स्वादबाकी है जीभ परमैं खिड़की को सपना सुनाने को बेताब हूँमुँह खोलते ही सपना उड़ कर बाहर जाता हैफिर लटक जाता हैतने से बैताल की तरह
मेरा अपना सपना खिड़की के पार मकान<br>बाहरमकान के उस पार फिर मकान<br>फिर कहीं जाकर एक घाटी है<br>घाटी हवा गेन्द की तरह घूमती है<br>उछल कर कूद आती है खिड़की से<br><br>मैं भीतर
मैं और खिड़की, दोनों खिलखिला उठते हैं। <br><br>९
७ <br><br>लोग हटाए जा रहे हैंअपने पुरखों की जमीन सेलोग हट रहे हैं पुरखों की जमीन से
जैसे ही खिड़की खुलती है<br>का कोईमेरी बंद साँस चलने लगती है। <br>कसूर नहीं
हटने हटाने के लिए
दरवाजा चाहिए
१०
पत्ते, तना, दरख्त
सब खो गए हैं अंधकार में
खिड़की जग रही है
इस इंतजार में
कि सुबह की पहली रोशनी
उसे ही मिलेगी
८<br><br>११
रात में देखे गए सपने का स्वाद<br>बाकी वह एक चित्र बनाती है जीभ पर<br>मैं खिड़की को सपना सुनाने को बेताब हूँ<br>एक नकाबपोश आदमीमुँह खोलते ही सपना <br>उड़ कर बाहर जाता है<br>फिर लटक जाता है<br>तने से बैताल की तरह<br><br>हाथ में बन्दूक
मेरा अपना सपना <br>फिर फाड़ देती है कागजखिड़की के बाहर<br>इस तरह बदला ले लेती हैमैं भीतर<br><br>अपने दोस्त की हत्या का
गुस्सा खिड़की से
बाहर चला गया है
९<br><br>१२
लोग हटाए जा रहे हैं<br>वह बनना नहीं चाहता शासकअपने पुरखों की जमीन से<br>किसी राज्य कालोग हट रहे हैं <br>उसकी इच्छा है किपुरखों की जमीन से<br><br>राज करे निहारिकाओं पर
खिड़की का कोई<br>उसे सलाखे पसन्द नहींकसूर पर खिड़कियों से एतराज नहीं<br><br>
हटने हटाने के लिए <br>दरवाजा चाहिए<br><br>१३
१०<br><br>पंख फड़फड़ायेबड़े शोर के साथमैंने खिड़की से बाहर देखाकुछ पंख कतरे पड़े थेमैंने भीतर देखा
पत्ते, तना, दरख्त<br>सब खो कहाँ गए हैं अंधकार में<br>खिड़की जग रही है<br>इस इंतजार में<br>कि सुबह की पहली रोशनी<br>उसे ही मिलेगी<br><br>मेरे पर?
११ <br>१४
वह पिता का एक चित्र बनाती प्रिय वाक्य था"जब चींटी की मौत आती है<br>तो पर निकलते हैं"एक नकाबपोश आदमी<br>इस मुहावरे का प्रयोग वे जब तब कर लिया कर लेते थेजब कभी हमारे सपने उड़ान के लिए तैयार होतेहाथ में बन्दूक<br><br>उनका मुहावरा हमारे सामने डट जाता
फिर फाड़ देती है कागज<br>इस तरह बदला ले लेती है<br>अपने दोस्त की हत्या का<br><br>१५
गुस्सा आज खिड़की खोलते ही ढेर से <br>"आप्त वचन" भड़भड़ा कर घुस आएबाहर चला गया है<br><br>मैंने उन्हें उलट पलट कर देखा
१२<br>और कूड़ेदान में डाल दिया
वह बनना नहीं चाहता शासक<br>वे मेरी खिड़की की हद लाँघ किसी राज्य का<br>कब और कैसे भीतर चले आएउसकी इच्छा है कि<br>राज करे <br>निहारिकाओं पर<br><br>मुझे मालूम ही नहीं पड़ा,
उसे सलाखे पसन्द नहीं<br>पर खिड़कियों से एतराज नहीं<br><br> १३<br> पंख फड़फड़ाये<br>बड़े शोर के साथ<br>मैंने खिड़की से बाहर देखा<br>कुछ पंख कतरे पड़े थे<br>मैंने भीतर देखा<br><br> कहाँ गए मेरे पर?<br><br> १४<br> पिता का एक प्रिय वाक्य था<br>" जब चींटी की मौत आती है तो पर निकलते हैं"<br>इस मुहावरे का प्रयोग वे जब तब कर लिया कर लेते थे<br>जब कभी हमारे सपने उड़ान के लिए तैयार होते<br>उनका मुहावरा हमारे सामने डट जाता<br><br> १५<br> आज खिड़की खोलते ही <br>ढेर से "आप्त वचन" भड़भड़ा कर घुस आए<br>मैंने उन्हें उलट पलट कर देखा<br><br> और कूड़ेदान में डाल दिया<br> वे मेरी खिड़की की हद लाँघ <br>कब और कैसे भीतर चले आए<br>मुझे मालूम ही नहीं पड़ा,<br><br> दो जोड़ी आँखें <br>
मुझे घूर रही हैं.
</poem>