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एक खिड़की आठ सलाखें (कविता) / रति सक्सेना

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एक खिड़की और ८ सलाखें, आठ भागों में कटा
नारियल वृक्ष का तना, पीछे से झाँकती
कटहल की एक शाख, ढ़ेर सारे पत्ते
चिड़िया चहचहाई,
पड़ोस से किसी बच्चे के रोने की आवाज
एक हवाई जहाज गुजरा
एक दिन पूरा हो गया।



खजुराहो की भंगिमाओं के बीच, कलम से भरा जार
बस्तर का घोटुल, दिल्ली का कलमदान
खिड़की की सिल पर, पूरा देश बस गया
ठहरो
सलाखों से लटकते गुजरात की पुतलियों की ओर
किसी का ध्यान तो गया नहीं।



यदि यह खिड़की नहीं
चित्र होता?
तो पत्ते हवा में हिलते नहीं
चिड़ियों की चहचहाटें सुनाई नहीं देतीं
तब शायद मैं खिड़की के अन्दर नहीं
बाहर होती



मैं खिड़की के पीछे हूँ
खिड़की मेरे सामने है
दोनो क्या एक बात है?



खिड़की के सामने एक घर है
घर की दहलीज पर एक सारस
पंख खुले हैं, गर्दन उठी
वह उड़ना चाहता है
किन्तु
पंजे सीमेंट में धँसे हैं

मेरा शरीर कसमसाने लगा



खिड़की के पार मकान
मकान के उस पार फिर मकान
फिर कहीं जाकर एक घाटी है
घाटी हवा गेन्द की तरह घूमती है
उछल कर कूद आती है खिड़की से

मैं और खिड़की, दोनों खिलखिला उठते हैं।



जैसे ही खिड़की खुलती है
मेरी बंद साँस चलने लगती है।



रात में देखे गए सपने का स्वाद
बाकी है जीभ पर
मैं खिड़की को सपना सुनाने को बेताब हूँ
मुँह खोलते ही सपना
उड़ कर बाहर जाता है
फिर लटक जाता है
तने से बैताल की तरह

मेरा अपना सपना
खिड़की के बाहर
मैं भीतर



लोग हटाए जा रहे हैं
अपने पुरखों की जमीन से
लोग हट रहे हैं
पुरखों की जमीन से

खिड़की का कोई
कसूर नहीं

हटने हटाने के लिए
दरवाजा चाहिए

१०

पत्ते, तना, दरख्त
सब खो गए हैं अंधकार में
खिड़की जग रही है
इस इंतजार में
कि सुबह की पहली रोशनी
उसे ही मिलेगी

११

वह एक चित्र बनाती है
एक नकाबपोश आदमी
हाथ में बन्दूक

फिर फाड़ देती है कागज
इस तरह बदला ले लेती है
अपने दोस्त की हत्या का

गुस्सा खिड़की से
बाहर चला गया है

१२

वह बनना नहीं चाहता शासक
किसी राज्य का
उसकी इच्छा है कि
राज करे
निहारिकाओं पर

उसे सलाखे पसन्द नहीं
पर खिड़कियों से एतराज नहीं

१३

पंख फड़फड़ाये
बड़े शोर के साथ
मैंने खिड़की से बाहर देखा
कुछ पंख कतरे पड़े थे
मैंने भीतर देखा

कहाँ गए मेरे पर?

१४

पिता का एक प्रिय वाक्य था
"जब चींटी की मौत आती है तो पर निकलते हैं"
इस मुहावरे का प्रयोग वे जब तब कर लिया कर लेते थे
जब कभी हमारे सपने उड़ान के लिए तैयार होते
उनका मुहावरा हमारे सामने डट जाता

१५

आज खिड़की खोलते ही
ढेर से "आप्त वचन" भड़भड़ा कर घुस आए
मैंने उन्हें उलट पलट कर देखा

और कूड़ेदान में डाल दिया

वे मेरी खिड़की की हद लाँघ
कब और कैसे भीतर चले आए
मुझे मालूम ही नहीं पड़ा,

दो जोड़ी आँखें
मुझे घूर रही हैं.