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ढ़हते दरख्त / रति सक्सेना

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|रचनाकार=रति सक्सेना
}}
{{KKCatKavita}}<poem>दरख्तों को ढहना पसन्द नहीं<br>वे उठते हैं ऊँचे फैलाव के साथ<br>वे फैलते हैं पूरे फैलाव में<br>वे पाँव पसारते हैं पूरी जमीन में<br>भरपूर ज़मीन, भरपूर आसमान<br>भरपूर आसपास, पूरी तरह भरपूर<br>जब कभी ज़मीन करवट लेती है<br>आसमान आखिरी बूंद तक पिघल जाता है<br>आसपास बैगाना बन जाता है<br>दरख्तों को ढहना पड़ता है<br>ढहने से पहले वे<br>पखेरुओं को आशीष देते हैं<br>लताओँ से विदा कहते हैं<br>पत्तियों को झड़ जाने देतें हैं<br>जडों में बिल बनाए साँपों का सिर<br>हौले से सहला देते हैं<br>मौन धमाके से<br>वर्तमान को थर्राते हुए<br>मुट्ठी भर माटी हाथ में लिए<br>
ढह जाते हैं भविष्य में
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