भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ढ़हते दरख्त / रति सक्सेना
Kavita Kosh से
दरख्तों को ढहना पसन्द नहीं
वे उठते हैं ऊँचे फैलाव के साथ
वे फैलते हैं पूरे फैलाव में
वे पाँव पसारते हैं पूरी जमीन में
भरपूर ज़मीन, भरपूर आसमान
भरपूर आसपास, पूरी तरह भरपूर
जब कभी ज़मीन करवट लेती है
आसमान आखिरी बूंद तक पिघल जाता है
आसपास बैगाना बन जाता है
दरख्तों को ढहना पड़ता है
ढहने से पहले वे
पखेरुओं को आशीष देते हैं
लताओँ से विदा कहते हैं
पत्तियों को झड़ जाने देतें हैं
जडों में बिल बनाए साँपों का सिर
हौले से सहला देते हैं
मौन धमाके से
वर्तमान को थर्राते हुए
मुट्ठी भर माटी हाथ में लिए
ढह जाते हैं भविष्य में