1,053 bytes added,
01:28, 6 सितम्बर 2013 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=ग़ुलाम मुर्तज़ा राही
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
मुझे ग़ुबार उड़ाता हुआ सवार लगा
मिरा क़यास हवाओं को नागवार लगा
उछालने में तुझे कितने हाथ शामिल थे
किनारे बैठ के लहरों का कुछ शुमार लगा
वो बूढ़ा पेड़ जो था बर्ग ओ बार से महरूम
हम उस से लग के जो बैठे तो साया-दार लगा
उबूर दरिया को करता रहा मगर इक बार
हुए जो शल मिरे बाजू तो बे-कनार लगा
निगाह अर्ज़-ओ-समा में जो मैं ने दौड़ाई
खिंचा हुआ मुझे चारों तरफ़ हिसार लगा
</poem>