भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुझे ग़ुबार उड़ाता हुआ सवार लगा / ग़ुलाम मुर्तज़ा राही
Kavita Kosh से
मुझे ग़ुबार उड़ाता हुआ सवार लगा
मिरा क़यास हवाओं को नागवार लगा
उछालने में तुझे कितने हाथ शामिल थे
किनारे बैठ के लहरों का कुछ शुमार लगा
वो बूढ़ा पेड़ जो था बर्ग ओ बार से महरूम
हम उस से लग के जो बैठे तो साया-दार लगा
उबूर दरिया को करता रहा मगर इक बार
हुए जो शल मिरे बाजू तो बे-कनार लगा
निगाह अर्ज़-ओ-समा में जो मैं ने दौड़ाई
खिंचा हुआ मुझे चारों तरफ़ हिसार लगा