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सिर और पाँव / हरिऔध

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|रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
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|संग्रह=चोखे चौपदे / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
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<poem>
जो बड़े हैं भार जिन पर है बहुत।

वे नहीं हैं मान के भूखे निरे।

है न तन के बीच अंगों की कमी।

पर गिरे जब पाँव पर तब सिर गिरे।

लोग पर के सामने नवते मिले।

पर न ये कब निज सगों से, जी फिरे।

दूसरों के पाँव पर गिरते रहे।

पर भला निज पाँव पर कब सिर गिरे।

तोड़ सोने को न लोहा बढ़ सका।

मोल सोने का गया टूटे न गिर।

पाँव ने सिर को अगर दीें ठोकरें।

तो हुआ ऊँचा न वह, नीचा न सिर।
</poem>
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