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सिर और पाँव / हरिऔध
Kavita Kosh से
जो बड़े हैं भार जिन पर है बहुत।
वे नहीं हैं मान के भूखे निरे।
है न तन के बीच अंगों की कमी।
पर गिरे जब पाँव पर तब सिर गिरे।
लोग पर के सामने नवते मिले।
पर न ये कब निज सगों से, जी फिरे।
दूसरों के पाँव पर गिरते रहे।
पर भला निज पाँव पर कब सिर गिरे।
तोड़ सोने को न लोहा बढ़ सका।
मोल सोने का गया टूटे न गिर।
पाँव ने सिर को अगर दीें ठोकरें।
तो हुआ ऊँचा न वह, नीचा न सिर।