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कोयल / हरिऔध

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{{KKRachna
|रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
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|संग्रह=चोखे चौपदे / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
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<poem>
कूक करके निज रसीले कंठ से।
है निराला रस रगों में भर रही।
कोयले से रंग में रंगत दिखा।
हैं दिलों में कोयलें घर कर रही।

रंग बिरंगे फूल हैं फूले हुए।
है दिसायें रंग बिरंगी गूँजती।
चहचहा चिड़ियाँ रही हैं चाव से।
भौंरे गूँजें, कोयलें हैं कूजती।

मन मरा या दिल हुआ कुछ और ही।
कोंपलों में है छटा वैसी कहाँ।
सुन जिसे जी की कली खिलती रही।
कोयलों में कूक है ऐसी कहाँ।

देख करके दुखी जनों का दुख।
दुंद है वह मचा रही पल पल।
या किसी का कराहना सुन कर।
बेतरह है कराहती कोयल।

जो हुआ है लालसाओं का लहू।
लाल फल दल है उसी में ही रँगा।
है उसी के दर्द कोयल कूक में।
कोंपलों में है वही लोलू लगा।
</poem>
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