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कहाँ गए सब के सब / विपिन चौधरी

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सब कुछ एकदम गड़बड़-झाला
तराशा हुआ सुख,
उलझा हुआ दुःख
गले तक आई प्यास
धो-पोंछ कर रखी उम्मीद
मांझ कर रखा इंतज़ार,
सब के सब एक सफर में खो गए
मैं खाली हाथ
सूनी आँखों से
उस दिशा में देखती हूँ
जहाँ से ये सभी दुलारे संगी-साथी आये थे
अब वहाँ केवल अंधेरा है
</poem>
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