1,303 bytes added,
07:30, 22 अप्रैल 2014 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=विपिन चौधरी
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
इतने बुरे भी नहीं होते काबुली चने
पर सच में काफी बुरे होते हैं
बचपन में इतने खाए
कि अब तो नाक तक अघाये
तब के समय तो
आंच से चनों के स्थायी रिश्ते को हमने
पूरी तरह से कुबूल कर लिया था
माँ चने उबालती जाती थी
हम उत्साह में खाते जाते थे
एक घड़ी तो उत्साह का अचार भी कसैला हो गया है
और
अब जीभ भी काबुली चनों का स्वाद नहीं औटती
कभी-कभार भूले-भटके घर में आ जाते हैं चने तो
महज इल्लियों को ही उनका स्वाद भाता है
जिन्होंने अपना स्वाद भी बचा रखा है
और उत्साह भी
</poem>