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काबुली चने / विपिन चौधरी
Kavita Kosh से
इतने बुरे भी नहीं होते काबुली चने
पर सच में काफी बुरे होते हैं
बचपन में इतने खाए
कि अब तो नाक तक अघाये
तब के समय तो
आंच से चनों के स्थायी रिश्ते को हमने
पूरी तरह से कुबूल कर लिया था
माँ चने उबालती जाती थी
हम उत्साह में खाते जाते थे
एक घड़ी तो उत्साह का अचार भी कसैला हो गया है
और
अब जीभ भी काबुली चनों का स्वाद नहीं औटती
कभी-कभार भूले-भटके घर में आ जाते हैं चने तो
महज इल्लियों को ही उनका स्वाद भाता है
जिन्होंने अपना स्वाद भी बचा रखा है
और उत्साह भी