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Kavita Kosh से
मेरे जीवन की पीड़ा ही, दोधारी तलवार हुई
झुलसाएगी गर्म फ़ज़ा झुलसाएगी, पैरों में छाले लाएगी
जो देती थी साया मुझको, दूर वही दीवार हुई
वो कुर्बत मालूम नहीं क्यूँ, उसके दिल पर भार हुई
मुद्दत से ख़ामोश हैं लब और सन्नाटा है ज़हनों ज़हन में परएक अजब सी तन्हाई पर , महसूस मुझे इस बार हुई
जिसके कारण खिलना सीखा जीवन के हर लम्हे ने