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<poem>
(होरी काफी-ताल दीपचन्दी)

भूल जग के विषयन कों, जप मन हरि को नाम॥
दीनबंधु हरि करुना-सागर, पतितन के विश्राम।
आपद-‌अंधकार महँ श्रीहरि पूरन-चंद्र ललाम॥
पाप-ताप सब मिटैं नाम तें, नास होहिं सब काम।
जम के दूत भयातुर भागैं, सुनत नाम सुख-धाम॥
भाग्यवान जे जपत निरंतर नाम सदा निष्काम।
निरख सुखी सत्वर हों मूरति हरि की जग-‌अभिराम॥
भाग्यहीन जिन्ह के मन-मुख महँ बसत न हरिको नाम।
नरक-रूप जग जीवन तिन्ह को भूमि-भार अघ-धाम॥
</poem>
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