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.. छपना जरूरी कविता लिखने के सौ कारण थे<br>और छपने का एक भी नहीं<br>फिर भी मैं छपा<br>:-एक भाशःआ के डूबते टापू के सारे बाशिन्दे समुद्र के सारे सीप, सारे मोती<br>:क्योंकि अपनी अलमारी के ताखे में रख लेना चाहते थे<br>और क्योंकि मैं भी उनमें से एक था <br><br>चारों तरफ़ अफ़रा-तफ़री मची थी<br>शब्दों का अपने अर्थों से रिश्ता<br>देवर-भाभीनुमा मज़ाक का हो रहा था<br>अन्तिम तौर पर सब-कुछ अगम्भीर था<br>कुछ भी ऎसा न था<br>जिसके मक़सद अपनी अश्लीलता में जग-ज़ाहिर न हों<br><br>
पुरस्कार-समितियों के सदस्य<br>
और व्यक्त्तित्व्वान आलोचक<br>
कवियों के सपनों में कविताएँ डिक्टेट कर रहे थे<br>
और जागा हुआ कवि<br>
बर्फ़-सी सफ़ेद अपनी नींद की चट्टान से कुछ भी तोड़ नहीं पा रहा था<br>
::-कठिन आसन में लेटा वह<br>
::आत्मा को निचोड़ता और ख़ून थूकता था<br>
तो ऎसे में छप जाने के अलावा और कोई चारा न था
हालाँकि छपना आसमान के फटे वितान को सिलना नहीं था<br>
जिसका ज़िक्र कविता में किया गया था<br>
वह छाती में रखे पत्थर का सरकना भी नहीं था<br>
जिस पर नाख़ून खरोचने से कविताएँ उतरती थीं<br>
वह उस मर्दाना अट्टहास की नफी भी नहीं था<br>
जिसके तले कमज़ोरदिल, ग़रीब और जनाने पानी हुए जाते थे<br><br>
 
फिर भी छपना जरूरी था<br>
क्‍योंकि छपने के बाद चिंता कम हो जाती थी<br>
क्‍योंकि छपने के बाद कविता कंक्रीट का खम्‍भा हो जाती थी<br>
:जिसे जमीन में गाडकर एक छत उस पर टांग सकते थे<br>
क्‍योंकि छपना दरअसल समाज में शामिल हो जाना था<br>
और समाज कुछ यूं यूँ था कि वह शक्ति के , सत्‍ता के और संप्रभुता के अनेक चेहरों का संग्रहालय तो था ही<br><br> :संग्रहालय तो था ही। इसके अलावा उसने भय की का रसायन तैयार किया था<br>इसमें जिसमें आत्‍मा के बाकी हर चेहरे को पिघलाकर घोल दिया गया था<br>वहां वहाँ आधे डरने वाले थे और आधे डरानेवाले<br>:- इस तरह वहां रहने के लिए रिहायश और आने- जाने के लिए एक <br>:सीधा रास्‍ता बनता था<br>छपना भी डरनेवालों से डरानेवालों में चले जाना था<br><br>डर-डरकर अनन्त तक जीना मुश्किल था<br>छपना डरने वालों (और जीना तो अनन्त तक ही था)<br>इसलिए हड़बड़ाकर मैं छपा<br><br> और छपते ही मैंने डरनेवालों की एक पूरी फसल दॆखी<br>जो छपने के लिए बस पकी खड़ी थी<br>एक जाती हुई भाषा की शायद आख़िरी खेप<br>जो प्रतिबद्धता की संकीर्णता से डराने वालों उकताकर<br>उदार-उदार हुए जाते बुजुर्गों की<br>असफल केंचुल पहन हथियाए हुए विचारों से नई सदी को जीतने चल पड़ी थी<br><br>उनके पास कुछ भी न था<br>सिवा उन कमन्दों के<br>जो मीडिया-महान जीवित-अजीवित पुरखों ने<br>राजमहल की खिड़कियों में डाली थीं<br>वे सबके सब दिल्ली चले जाना आ रहे थे<br>और भव्य बरामदों में खड़े<br>एक के साथ हाथ से, एक के साथ आँख से और एक के साथ कान से बतिया<br> रहे थे<br>:यह बहुमुखी प्रतिभाओं का बहुधन्धी-बहुमंज़िला<br>:संवाद था ...जो उस चुप्पी के गिर्द ईंट-दर-ईंट<br>:दहाई-ब-दहाई बन रहा था जो ईश्वर ने और राजाओं ने साधी थीं<br>और भीतर बड़ी-बड़ी अकादमियाँ<br>क़लम के नख-दंत-विहीनों को<br>दुर्घटना कॆ ख़ामोश, निष्क्रिय तमाशबीनों को<br>उनके संयम के जवाब में प्रशस्तियाँ बाँट रही थी<br><br>
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