भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुष्ट-सम्पुष्ट छपास का शौकिया शोकगीत / आर. चेतनक्रांति

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कविता लिखने के सौ कारण थे
और छपने का एक भी नहीं
फिर भी मैं छपा
-एक भाषा के डूबते टापू के सारे बाशिन्दे समुद्र के सारे सीप, सारे मोती
क्योंकि अपनी अलमारी के ताखे में रख लेना चाहते थे
और क्योंकि मैं भी उनमें से एक था
चारों तरफ़ अफ़रा-तफ़री मची थी
शब्दों का अपने अर्थों से रिश्ता
देवर-भाभीनुमा मज़ाक का हो रहा था
अन्तिम तौर पर सब-कुछ अगम्भीर था
कुछ भी ऎसा न था
जिसके मक़सद अपनी अश्लीलता में जग-ज़ाहिर न हों

पुरस्कार-समितियों के सदस्य
और व्यक्त्तित्ववान आलोचक
कवियों के सपनों में कविताएँ डिक्टेट कर रहे थे
और जागा हुआ कवि
बर्फ़-सी सफ़ेद अपनी नींद की चट्टान से कुछ भी तोड़ नहीं पा रहा था
-कठिन आसन में लेटा वह
आत्मा को निचोड़ता और ख़ून थूकता था
तो ऎसे में छप जाने के अलावा और कोई चारा न था
हालाँकि छपना आसमान के फटे वितान को सिलना नहीं था
जिसका ज़िक्र कविता में किया गया था
वह छाती में रखे पत्थर का सरकना भी नहीं था
जिस पर नाख़ून खरोचने से कविताएँ उतरती थीं
वह उस मर्दाना अट्टहास की नफी भी नहीं था
जिसके तले कमज़ोरदिल, ग़रीब और जनाने पानी हुए जाते थे

फिर भी छपना जरूरी था
क्योंीकि छपने के बाद चिंता कम हो जाती थी
क्योंीकि छपने के बाद कविता कंक्रीट का खम्भाथ हो जाती थी
जिसे जमीन में गाडकर एक छत उस पर टांग सकते थे
क्योंिकि छपना दरअसल समाज में शामिल हो जाना था
और समाज कुछ यूँ था कि वह शक्ति के, सत्तान के और संप्रभुता के अनेक चेहरों का
संग्रहालय तो था ही। इसके अलावा उसने भय का रसायन तैयार किया था
जिसमें आत्माय के बाकी हर चेहरे को पिघलाकर घोल दिया गया था
वहाँ आधे डरने वाले थे और आधे डरानेवाले
- इस तरह वहां रहने के लिए रिहायश और आने- जाने के लिए एक
सीधा रास्ता बनता था
छपना भी डरनेवालों से डरानेवालों में चले जाना था
डर-डरकर अनन्त तक जीना मुश्किल था
(और जीना तो अनन्त तक ही था)
इसलिए हड़बड़ाकर मैं छपा
और छपते ही मैंने डरनेवालों की एक पूरी फसल दॆखी
जो छपने के लिए बस पकी खड़ी थी
एक जाती हुई भाषा की शायद आख़िरी खेप
जो प्रतिबद्धता की संकीर्णता से उकताकर
उदार-उदार हुए जाते बुजुर्गों की
असफल केंचुल पहन हथियाए हुए विचारों से नई सदी को जीतने चल पड़ी थी
उनके पास कुछ भी न था
सिवा उन कमन्दों के
जो मीडिया-महान जीवित-अजीवित पुरखों ने
राजमहल की खिड़कियों में डाली थीं
वे सबके सब दिल्ली चले आ रहे थे
और भव्य बरामदों में खड़े
एक के साथ हाथ से, एक के साथ आँख से और एक के साथ कान से बतिया
रहे थे
यह बहुमुखी प्रतिभाओं का बहुधन्धी-बहुमंज़िला
संवाद था जो उस चुप्पी के गिर्द ईंट-दर-ईंट
दहाई-ब-दहाई बन रहा था जो ईश्वर ने और राजाओं ने साधी थीं
और भीतर बड़ी-बड़ी अकादमियाँ
क़लम के नख-दंत-विहीनों को
दुर्घटना कॆ ख़ामोश, निष्क्रिय तमाशबीनों को
उनके संयम के जवाब में प्रशस्तियाँ बाँट रही थी
नई फ़सल के शब्द-सिपाही
मंचीय कर्मकांड के अविश्वाआशी थे
लेकिन मुकुट के अभिलाषी थे
अपने तईं वे भी निर्वाण के हक़दार थे
हालांकि पलट पड़ने को भी तैयार थे
कोई भी राह पकड़कर
किसी भी दिशा में
वे कहीं भी जा सकते थे
उन्होंने कोई कसम नहीं खाई थी
बेढब लोच उन्होंने पाई थी
ऎसे उन लोचवान हमउम्रों के बीच
और ऎसे उन पुरखों के बीच
जो छप-छपकर पत्थर हो चुके थे / हर लोच खा चुके थे
अकारण
या मंगलवार का अखंड व्रत रखने के कारण
मैं छपा
और मैंने जाना
मेरी आधी-हुई आधी-अनहुई उन परेशान अभिव्यक्तियों ने माना
कि मेरे शब्दों का मंतव्य अंतत: कुछ भी न था
कि वे एक बेसब्र समाज की बेसब्र भाषा के
बेहद लचीले, बेहद अस्थिर और लगातार अर्थ-संदिग्ध शब्द थे
खाली ध्वनिच्युत मंत्र
जिनके अनुष्ठान मारे जा चुके थे
पेशाबघर में चिपके वे
बस मर्दानगी को पुकारते थे
(कि हाथ से निकले जाते वक़्त को
बस वही थाम सकती थी)
और उनका मकसद सिर्फ़ छपना था
और छपकर जल्द-अज-जल्द पत्थर हो जाना था
जो हवा को भी रोकता है और पानी को भी
और जिससे इमारतें बनती थीं-- पहले भी और आज भी।