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|रचनाकार=हरिश्चंद्र पांडेय 'सरल'
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<poem>
मनई बन मनई का प्यार दे,

भेद जाति धर्म कै बिसार दे,

गंगा कै नीर गुन गाये

देसवा कै पीर गुन गाये।

हम तुम न और कोऊ तन मन से भारती,

मन्दिर अजान होय मस्जिद मा आरती,

नवा नवा जग का बिचार दे,

पंडित औ पीर का सुधार दे,

तुलसी औ मीर गुन गाये

घर घर कबीर गुन गाये।

… … देसवा कै पीर गुन गाये।

गीता कुरान औ कुरान बनै गीता,

जाव भूलि अबलौं कि दिन कैसे बीता,

काबा औ कासी बिसार दे,

दूनौ का एक रूप ढार दे,

सन्त औ फकीर गुन गाये

रंक औ अमीर गुन गाये।

… … देसवा कै पीर गुन गाये।

‘हे’ न लिखै हिन्दू न ‘मीम’ लिखै मुस्लिम

‘हे’ औ ‘मीम’ हम लिखैं एक रहैं हम तुम,

मीत बनैं सबही पुकार दे,

अरुझी लट अइसन सँवार दे,

ईद औ अबीर गुन गाये

निखरी तस्वीर गुन गाये।

… … देसवा कै पीर गुन गाये।
</poem>
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