ग़ज़ल विधा क्योंकि बातचीत के बहुत नज़दीक है इस लिए छन्द गणना में शब्दों के उच्चारण को महत्व दिया जाता है। कई शब्दों के उच्चारण पर हिन्दी और उर्दू के विद्वानों के मत में बहुत अंतर है। मैंने अनुभव किया है कि हिन्दी के विद्वान संस्कृत के शब्दों के उच्चारण को अपरिवर्तित रखते हुए, अरबी, फ़ारसी के शब्दों के उच्चारण को अपने अनुसार ढालने में रुचि रखते हैं जबकि उर्दू के विद्वान अरबी, फ़ारसी के शब्दों के उच्चारण को अपरिवर्तित रखकर संस्कृत शब्दों को अपने सांचे में ढालना पसंद करते हैं। मेरा मानना है कि यदि इस ज़द्दी रवैये को छोड़ दिया जाए तो बातचीत के स्तर पर हिन्दी और उर्दू एक ही भाषा है। ग़ज़ल में शब्द के मूल उच्चारण को यथासंभव बनाए रखना चाहिए लेकिन यदि आवश्यक हो तो शब्दों के बहुप्रचलित उच्चारण का प्रयोग करने में कोई बुराई नहीं है।
ग़ज़ल के विषय में मेरी इन मान्यताओं को विद्वान किस हद तक सही मानते हैं यह तो मुझे पता नहीं लेकिन मेरे मन में ग़ज़ल की जो तस्वीर है वह इन धारणाओं के बिना पूरी नहीं होती।
रवि कांत 'अनमोल' पठानकोट, २०-७-२०१० रवि कांत 'अनमोल'
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