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{{KKRachna
| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
| संग्रह =
}}
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<poem>
है आदि काल से मानव का आचरण मित्रो
ये छोड़ पाया न इच्छा को एक क्षण मित्रो
सहेजते हैं जो हर दिन हरेक क्षण मित्रो
प्रशंसनीय है ऐसों का आचरण मित्रो
बहू की चाल ने सबके ह्रदय को मोह लिया
बिना हटाए ही मुखड़े से आवरण मित्रो
जो पूजनीय हों, पैरों को उनके, पैर नहीं
हमे सिखाया गया है, कहो चरण मित्रो
किसी भी आँख से आँसू निकाल सकता है
पड़े जो आँख में छोटा सा एक कण मित्रो
बहुत ही त्रस्त हैं निर्धन, है ऐसी मँहगाई
बिगड़ गए हैं बचत के समीकरण मित्रो
पता नहीं है ककहरा भी जिसको उपवन का
"वो तितलियों को सिखाता है व्याकरण मित्रो"
छपा न कोई जो आए, अगस्त है सोलह
सहारा, आज, नभाटा या जागरण मित्रो
किये हैं आपने उपकार अनगिनत मुझ पर
न भूल पाउँगा मैं जिसको आमरण मित्रो
नहीं करेंगे जो शोषण वो होंगे शोषित ही
'रक़ीब' जैसे हैं लाखों उदाहरण मित्रो
</poem>
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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
| संग्रह =
}}
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<poem>
है आदि काल से मानव का आचरण मित्रो
ये छोड़ पाया न इच्छा को एक क्षण मित्रो
सहेजते हैं जो हर दिन हरेक क्षण मित्रो
प्रशंसनीय है ऐसों का आचरण मित्रो
बहू की चाल ने सबके ह्रदय को मोह लिया
बिना हटाए ही मुखड़े से आवरण मित्रो
जो पूजनीय हों, पैरों को उनके, पैर नहीं
हमे सिखाया गया है, कहो चरण मित्रो
किसी भी आँख से आँसू निकाल सकता है
पड़े जो आँख में छोटा सा एक कण मित्रो
बहुत ही त्रस्त हैं निर्धन, है ऐसी मँहगाई
बिगड़ गए हैं बचत के समीकरण मित्रो
पता नहीं है ककहरा भी जिसको उपवन का
"वो तितलियों को सिखाता है व्याकरण मित्रो"
छपा न कोई जो आए, अगस्त है सोलह
सहारा, आज, नभाटा या जागरण मित्रो
किये हैं आपने उपकार अनगिनत मुझ पर
न भूल पाउँगा मैं जिसको आमरण मित्रो
नहीं करेंगे जो शोषण वो होंगे शोषित ही
'रक़ीब' जैसे हैं लाखों उदाहरण मित्रो
</poem>