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|रचनाकार=श्रीनाथ सिंह
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
एक चीन का सौदागर था,
बहुत बड़ी थी उसकी चोटी
उसे लपेट लपेट कमर पर,
था वह लेता लगा लंगोटी।
उस चोटी में फंस फंस करके,
गिर जाते थे अगणित राही।
इससे सड़कों पर चलने की,
थी उसको हो गई मनाही।
पर वह घर में बैठे बैठे,
भी उत्पात मचाता था।
फंस कर गिरते वायुयान थे,
चोटी अगर उड़ाता था।
उसका लड़का चतुर बड़ा था,
था उसने मन में ठाना।
खुल सकता है इस चोटी के,
बल पर बड़ा कारखाना।
बस वह बोला मौका पाकर,
बप्पा मानो मेरी बात।
कम्बल लोई और दुशाले,
क्यों न बनायें हम दिन रात।
बात चतुर बेटे की फ़ौरन,
बूढ़े सौदागर ने मानी।
चोटी का वह सेठ कहाया,
दूर हूई उसकी हैरानी।
</poem>
|रचनाकार=श्रीनाथ सिंह
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
एक चीन का सौदागर था,
बहुत बड़ी थी उसकी चोटी
उसे लपेट लपेट कमर पर,
था वह लेता लगा लंगोटी।
उस चोटी में फंस फंस करके,
गिर जाते थे अगणित राही।
इससे सड़कों पर चलने की,
थी उसको हो गई मनाही।
पर वह घर में बैठे बैठे,
भी उत्पात मचाता था।
फंस कर गिरते वायुयान थे,
चोटी अगर उड़ाता था।
उसका लड़का चतुर बड़ा था,
था उसने मन में ठाना।
खुल सकता है इस चोटी के,
बल पर बड़ा कारखाना।
बस वह बोला मौका पाकर,
बप्पा मानो मेरी बात।
कम्बल लोई और दुशाले,
क्यों न बनायें हम दिन रात।
बात चतुर बेटे की फ़ौरन,
बूढ़े सौदागर ने मानी।
चोटी का वह सेठ कहाया,
दूर हूई उसकी हैरानी।
</poem>