भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ढाल / प्रकाश मनु

87 bytes removed, 10:40, 18 जून 2015
{{KKCatKavita}}
<poem>
सिंको सिंकोमारो मुझे मारोऔर और सिंकोकि मैं मार खाकर। पीठसेकूंगा/धूप मेंकंधों तक। टूट कर भीरहूंगा ज़िन्दा
(मक्खियों की भिनभिनाहट चिपका लोमारो मुझे मारोगाल कि मार से,अभी तो दूर तक गुज़र/सकता हूं निर्लिप्तमरे हुए भविष्य-शिशु बीड़ी खुली हवा में पीता हुआ...भीतर का उद्बुद्ध सुखएक चिथड़ा। लहूलुहान संकल्प एकवह तो अब भी है मेरा प्राप्य संवेदनबौने अवसरवाद की यादें सीने परसेनाके हाथों से दूर/अभी जिन्दा!)
सिंको सिंकोमारो मुझे मारोमैं भीतर देखता रहूंगा शान्तव्याप्त/सर्व जनाशय उच्छल कामना की मंगलाकि जो मेरी और मुझसे सबकी हैऔर सिंकोजो है बचाने वाली ढालभूख की आग सर्वहारा धूप के धुले पंखों मेंछुपीचिड़िया की दृष्टिमयी तरलता की-सी
भूख से भूख! नींद से नींद तक की सैरयही है एक रास्ताजो चिन्ताओं के बीच से गुजरता है/सीधा।सिंको सिंकोउम्र भर। अभाव की चौखट परजटिल शीर्षासन-रत,हाथों में कुछ पीले पत्ते दिये गये हैं तुम्हेंइन्हें खत्म करने से पहले और बादगिनो बारमैं रहूंगा उसका अमृत-बारपुत्रजिन्दाबिना चकराये गिन सको तो मौत क्योंकि मारने वाले सेबचाने वाले का हकछीन ला सकते होदो चार बरस और सुरक्षितमुर्गदड़बे में-और थोड़ी-सी चेतना मुंह से पेट तक की। सिंको सिंकोएक छोटे वृत्त की गिनती केदुर्वह ताप। सिरदर्द में-(नीले तमाचों को बार-बार छुआ करझुका/प्रसन्न/माथा)और घिसटते रहो कुछ औरजिन्दगी के हाशिये में...!समय ने बड़ा सिद्ध किया है
</poem>