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लेकिन कब तक? / सुशीला टाकभौरे

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<poem>मन की चट्टान पर
जब भी चोट पड़ती है
सब ओर
एक आग सी फैल जाती है
धुंधआती अधजली आग
ज्वालामुखी होकर
धरती-सी फूट पड़ती है
लोग भूकम्प की बात को
सहज मानते हैं
स्त्री ज्वाला-मुखी हो सकती है
यह भी तो सहज बात है</poem>
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