भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
{{KKCatKavita}}
<poem>
एक नाई ने जब लिखनी चाही अपनी पटकथामाँ के पेट से मरघट तकस्याही ख़त्म हो गईकई अनुष्ठान सीखे हैं हमनेएक तमोली नेछाती ठोककर सरेआमजब लाल करने चाहे अपने होंठपटका है तथाकथित पहलवानों कोउसका बीड़ा छीनकर खा वे दिन गए सामंतएक पासी ने जब लड़ने से इनकार कर दियावे अखाड़े में जीत जाते थे भौंहें हिलाकरदबंगों ने काट दिए उसके हाथभय दिखाकर खेल खेललेते थे कुश्ती काचमारों ने एक समूह बनायापर उन्होंने हमारा धोबियापाट नहीं देखा थाअखाड़े में वे बेगारी नहीं करेंगे भूख की कीमत परअकेले शिक्षित थेतालाब मिट्टी उनके जबर खेत से लाई जाती थीचना उनके खेतों में उगता थागायें उनके घरों में ब्यातीं थींउनके खलिहानों में कई औरतों का पानी पीने का हक मिलना चाहिए उन्हें रक्त चूस लिया जाता थातब भीवे चुप रहती थींठीक उसी समय‘ब्राह्मण’ पत्रिका उन्हीं का सम्पादकबल था उनकी भुजाओं मेंकह रहा है अब वही मिलते हैं अपने लोगों सेपुराने अहाते में‘चार माह बीते जजमान, अब तो करो दक्षिणा दान’बाअदब पूछते हैंहम कैसे नवजागरण में थे खुदाहो राकेश बाबूजहाँ पीने का पानी कैसे चल रही है आपकी नूरा-कुश्तीकिसी चीज की कमी तो नहीं नसीब यहाँ के पटवारी आपसे बहुत डरते हैंमेरे बाबा भी लड़ा करते थे, नामी पहलवान थेपर अब वे दिन कहाँअब तो रहना दूभर कर दिया है नए कठमुल्लों ने मैं कहता वह जमाना दूसरा था इंसानों अब जमाना दूसरा हैसमय के साथ बदलना चाहिए खुदसारे समीकरण बदल रहे हैंगणित तक बदल चुकी हैआइये! अब हम दोनों कोसुलझाने हैं सवालजहाँ हर गली मेंदुनिया के कई दुर्गुण दूर हुए हैंविश्वविद्यालय की जगह ताजमहल बनाया जा रहा था स्वस्थ्य मन से लड़ने परजो बाकी हैं उन्हें भी हम कर देंगे बाहर माँ के पेट से मरघट तक हमने जो सीखा है उसी को चरितार्थ करना हैहम मिलेंगे तो बनायेंगे बेहतर दुनिया
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader, प्रबंधक
35,132
edits