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छप्पयमनहरन घनाक्षरी(मंगलाचरणपुनः वसंत-वर्णन)
प्रति पद जामैं होत, ध्यान राधाफेरि वैसैं सुरभि-माधव कौ।पढ़तसमीर सरसान लागे, सुनत, चितफेरि वैसैं बेलि मधु-गुनत, जाहि डर रहै न भव कौ॥भारन उनै गई।रसमै अतिसुख माँनिफेरि वैसैं चाँह कै चकोर चहुँ बोले फेरि, रसिक-जन सौं सुख माँनो।निज मति फेरि बैसी क्वैलिया की अनुहारि, जाहि रचि दीन्ह्यौं बाँनी॥कूकनि चहूँ भई॥‘द्विजदेव’ सींचि मधुफेरि वैसैं गुनी भौंर-बैन सौं, कियै जासु परकास भुव।भौरैं फेरि वैसौ ही समैं आयौ आनँद-सुधामई।सुभता ‘सिँगार-लतिका’ बिषै, तृतिय ‘सुमन’ अवतार हुव॥फेरि वैसैं अंगन उमंग अधिकाँने फेरि वैसैं हीं कछूक मति मेरी भोरी ह्वै गई॥
भावार्थ: इस छप्पय में श्लेषालंकार की रीति से यहाँ तक कवि ग्रंथ ने ‘शारदा’ के खंडों शिक्षानुसार अनेक हावभाव, लीला-विलासादि का वर्णन किया; तदुपरांत जैसे वसंत के संबंध का परिचय देता है और विशेष बात आगमन को देख, प्रथम सुमन में कवि की बुद्धि चकित व स्तंभित हुई थी कि यह सब कैसा गोरखधंधा है कि-संवत्, मास और तिथि उस समय ‘भगवती भारती’ ने अपने सदुपदेश से कवि को भी प्रकाशित करता है जबकि यह ग्रंथ समाप्त हुआ निर्देश किया था कि तुम इस ग्रंथ का आरंभ कवि ने ‘चैत्र कृष्ण प्रतिपदा’ संवत् ‘उन्नीस सौ चार’ को किया और संवत् उन्नीस सौ पाँच’ की फाल्गुनी ‘पूर्णिमा’ को मृगया भ्रमजाल में कहाँ तक पड़ोगे? ऋतुराज ‘वसंत’ वृंदावन में आकर श्री ‘नंद-नंदन’ तथा ‘वृषभानुनंदिनी’ के ब्याज से लीलार्थ वन में वसंतकालीन सुखमा देख कवि का चित्त फिर लहराया कि श्रीराधा के ‘नख-शिख’ का वर्णन करे, जिसको उसने दूसरे ही दिन अर्थात् ‘चैत्र कृष्ण प्रतिपदा’ को आरंभ सुसज्जित कर एक महीने पीछे यानी ‘वैशाख कृष्ण प्रतिपदा’ संवत् ‘उन्नीस सौ छह’ रहा है, ऐसे उनके अनेक अनुचर हैं, प्रत्येक की महिमा कहाँ तक कोई कह सकता है; इन सब व्यर्थ जंजालों को समाप्त किया। मुख्यार्थ: जिसके प्रतिछंद से ‘राधा-माधव’ छोड़ उसी मनोहर ‘दंपती’ की लीला का ध्यान हो और जिसे पढ़ते-सुनते और मनन करतेवर्णन करो, भवजिससे लोक-बाधा से निवृत्ति हो, क्योंकि परलोक दोनों में सफलता हो। तद्नुसार यह भगवद्गुणानुवाद है, जो ग्रंथ में रस से परिपूर्ण हैसब ‘लीला’ कहते- सुखपूर्वक रसिकजनों के सुखार्थकहते एक वर्ष व्यतीत हो गया पर लीलाओं का अंत कवि को न मिला, जिसको सरस्वती ने अपनी बुद्धि तब अकस्मात् कवि के अनुसार करना चाहा उसी शृंगार की लता चित्त में मेरे अमृतरूपी वचनों के सिंचन करनेसे तीसरा सुमन लगा अर्थात् खंड व अध्याय प्रारंभ हुआ। लक्ष्यार्थ: जिस प्रतिपदा में राजायह भावना उत्पन्न हुई कि जिनकी ‘अनंतलीला’ कहते-माधव अर्थात् वैशाख मास कहते इतना समय व्यतीत हुआ, फिर भी मैं समाप्त करने मेंअसमर्थ ही रहा, अधव, असित, यानी कृष्णपक्ष का ध्यान होता है उन (माधव शब्द में संधि हैराधारानी) और जिसकी कीर्ति का रूप-लावण्य कैसा होगा? जिनके प्रेम के पढ़ने, सुनने तथा मनन करने से संसार वशीभूत भगवान् रसिकशिरोमणि आनंदकंद ‘व्रजचंद’ हैं। निदान ऐसे सद्विचार का भय व्याप्त नहीं होता अर्थात् वैशाख कृष्ण प्रतिपदा, जिसमें कच्छपरूप धारण कर भगवान् उद्गार होते ही विघ्नकारी ‘वसंत’ ने देवताओं अपना चमत्कार दिखलाकर पुनः भ्रमजाल में ‘कवि’ की मति को अभय दियाफसाया, रसिकजनों से बड़ी प्रीति करके अति सुखपूर्वक रसमय अर्थात षण्मय (6) अंक माना, फिर जिसको अपनी गति के अनुसार वाणी ने रचा अर्थात् आकाश जिसमें शब्द की गति होती है, यानी शून्य। कवि यों कहता है कि पूर्ववत् पुनः सुगंधित समीर बहने लगे, वैसे ही लता समूह मधु वचन के अर्थों से सिंचित कर जिसको मैंने भुवन में विख्यात किया। मधु के वाच्यार्थ नव (नौपुष्प रस व मद्य) हैं। जैसेभाराक्रांत हो झुक गया, फिर चकोर वैसे ही चहकने लगे और कोकिल”मधु बसंत मधु चैत्र, नभ, मधु मदिरा, मकरंद।मधु जल, मधु पय, मधु सुधा, मधु सूदन, गोबिंद॥“ अतएवं नौ का अंक रखना कवि कलाप चतुर्दिक कूकने लगे; फिर वैसे ही मन को अभीष्ट है। ऐसी शुभ ‘शृंगार लतिका’ लहरानेवाला समय आ गया तथा मेरे प्रत्यंग में तिसके पीछे उत्साह का आधिक्य फिर सुमन लगा हुआ, जिससे मेरी बुद्धि कुछ भोरी हो गई अर्थात् अर्थात् सुंदर मन लगा इस प्रकार-‘अंकानां वामतो गतिः।’ की रीति मद्यपान करनेवालों के बीच में पड़ने से संवत् ‘उन्नीस सौ वैशाख प्रतिपदा’ लब्ध होता स्वाभाविक बुद्धि में विपर्यय का होना संभव है।
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