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छंद 242 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मनहरन घनाक्षरी
(पुनः वसंत-वर्णन)

फेरि वैसैं सुरभि-समीर सरसान लागे, फेरि वैसैं बेलि मधु-भारन उनै गई।
फेरि वैसैं चाँह कै चकोर चहुँ बोले फेरि, फेरि बैसी क्वैलिया की कूकनि चहूँ भई॥
‘द्विजदेव’ फेरि वैसैं गुनी भौंर-भौरैं फेरि वैसौ ही समैं आयौ आनँद-सुधामई।
फेरि वैसैं अंगन उमंग अधिकाँने फेरि वैसैं हीं कछूक मति मेरी भोरी ह्वै गई॥

भावार्थ: यहाँ तक कवि ने ‘शारदा’ के शिक्षानुसार अनेक हावभाव, लीला-विलासादि का वर्णन किया; तदुपरांत जैसे वसंत के आगमन को देख, प्रथम सुमन में कवि की बुद्धि चकित व स्तंभित हुई थी कि यह सब कैसा गोरखधंधा है और उस समय ‘भगवती भारती’ ने अपने सदुपदेश से कवि को निर्देश किया था कि तुम इस भ्रमजाल में कहाँ तक पड़ोगे? ऋतुराज ‘वसंत’ वृंदावन में आकर श्री ‘नंद-नंदन’ तथा ‘वृषभानुनंदिनी’ के लीलार्थ वन को सुसज्जित कर रहा है, ऐसे उनके अनेक अनुचर हैं, प्रत्येक की महिमा कहाँ तक कोई कह सकता है; इन सब व्यर्थ जंजालों को छोड़ उसी मनोहर ‘दंपती’ की लीला का वर्णन करो, जिससे लोक-परलोक दोनों में सफलता हो। तद्नुसार यह सब ‘लीला’ कहते-कहते एक वर्ष व्यतीत हो गया पर लीलाओं का अंत कवि को न मिला, तब अकस्मात् कवि के चित्त में यह भावना उत्पन्न हुई कि जिनकी ‘अनंतलीला’ कहते-कहते इतना समय व्यतीत हुआ, फिर भी मैं समाप्त करने में असमर्थ ही रहा, उन (राधारानी) का रूप-लावण्य कैसा होगा? जिनके प्रेम के वशीभूत भगवान् रसिकशिरोमणि आनंदकंद ‘व्रजचंद’ हैं। निदान ऐसे सद्विचार का उद्गार होते ही विघ्नकारी ‘वसंत’ ने अपना चमत्कार दिखलाकर पुनः भ्रमजाल में ‘कवि’ की मति को फसाया, जिसको कवि यों कहता है कि पूर्ववत् पुनः सुगंधित समीर बहने लगे, वैसे ही लता समूह मधु (पुष्प रस व मद्य) भाराक्रांत हो झुक गया, फिर चकोर वैसे ही चहकने लगे और कोकिल-कलाप चतुर्दिक कूकने लगे; फिर वैसे ही मन को लहरानेवाला समय आ गया तथा मेरे प्रत्यंग में उत्साह का आधिक्य फिर हुआ, जिससे मेरी बुद्धि कुछ भोरी हो गई अर्थात् मद्यपान करनेवालों के बीच में पड़ने से स्वाभाविक बुद्धि में विपर्यय का होना संभव है।