|संग्रह= दो मिसरे / विजय वाते
}}
कितने आसां सबके सफर हो गए|<br>
रेत पर नाम लिखकर अमर हो गए|<br><br>
ये जो कुर्सी मिली, क्या करिश्मा हुआ,<br>
अब तो दुश्मन भी लख्तेजिगर हो गए|<br><br>
साँप-सीढ़ी का ये खेल भी खूब है,<br>
वो जो नब्बे थे, बिल्कुल सिफ़र हो गए|<br><br>
एक लानत, मलामत मुसीबत बला,<br>
तेग लकड़ी की थी, साईं ग़दर हो गए|<br><br>
सबके चहरे पे एक सनसनी की ख़बर,<br>
जैसे अख़बार वैसे शहर हो गए|<br><br>
ये शिकायत जहाजों की है आजकल,<br>
उथले तालाब भी अब बहर हो गए|<br><br>