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शहर / सुरेश चंद्रा

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शहर
सुबह चहचहाता है, उम्मीद सा

शहर, दिन के शोर मे
कोशिश सा चीखता है

शाम से ही, साध लेता है, चुप्पी, ये शहर
ख़ामोश करता है, नुख्त की सब बोलियाँ

इस शहर के शब औ’ सहर का सिलसिला
मुझ सा ही है सादिक़, और तुम सा ही है !!
</poem>
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