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{{KKRachna
|रचनाकार=रामनरेश पाठक
|अनुवादक=
|संग्रह=मैं अथर्व हूँ / रामनरेश पाठक
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
बगीचों में जग रही है
कृष्णचूड़ा
निकटतम अवस्त्रा प्रकृति
तंद्रिल नृत्यरता है
संस्कृति
हथकरघे पर किकुरी लगाए
सो गए हैं लोग
चांदनी लोकगीत गाती है
एक अंधा गहरा कुआँ बुलाता है
उपासना के
ऋक, साम, यजु:, अथर्व स्वरों में
कुछ ढूंढते फिर रहे हैं पृथ्वीपुत्र
अभी-अभी उठेगा एक ज्ञान
और
एक नया दर्शन जन्म लेगा
</poem>
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|रचनाकार=रामनरेश पाठक
|अनुवादक=
|संग्रह=मैं अथर्व हूँ / रामनरेश पाठक
}}
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बगीचों में जग रही है
कृष्णचूड़ा
निकटतम अवस्त्रा प्रकृति
तंद्रिल नृत्यरता है
संस्कृति
हथकरघे पर किकुरी लगाए
सो गए हैं लोग
चांदनी लोकगीत गाती है
एक अंधा गहरा कुआँ बुलाता है
उपासना के
ऋक, साम, यजु:, अथर्व स्वरों में
कुछ ढूंढते फिर रहे हैं पृथ्वीपुत्र
अभी-अभी उठेगा एक ज्ञान
और
एक नया दर्शन जन्म लेगा
</poem>