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सब अच्छे हैं 'दीप' मगर पतवार बुरी
   23.      {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=दीपक शर्मा 'दीप'|अनुवादक=|संग्रह=}}{{KKCatGhazal}}<poem> उस गली से जब गुज़रते हम चले जाते हैं दोस्त पूछ मत कितना सिसकते और पछताते हैं दोस्त! ज़िन्दगी को खा गयी है मस्लेहत बे-शक़, मगर तुम यकीं मानो कि इससे ख़ूब-तर खाते हैं दोस्त वक़्ते-शब घर से बुला कर के थमा कर के 'शराब' सुब्ह को दुनिया के हो कर तंज़-फ़रमाते हैं दोस्त सब नवाज़िश है तिरी ही के ख़लिश है दम-ब-दमपाँव पड़ते हैं चला जा, ‘अब कसम खाते हैं दोस्त’ अब ख़ुशी मिलती नहीं है सिर्फ़ डर लगता है 'दीप' जब अचानक आ के साँकल, पीटते जाते हैं दोस्त</poem>