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कितनी सरलता से / कुमार मुकुल

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कितनी सरलता से
चली जाती है तू
असभ्यता और सभ्यता के ​​
मिलन बिंदु पर
निर्वस्त्र होती हुई
जैसे प्रसव पीड़ा की
बेचैनी को याद करती
तेरी आत्मा
इस मांसावरण को चीर
नूतन रूप
धारण करना चाहती हो।
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