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|रचनाकार=विकास शर्मा 'राज़'
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<poem>
रोज़ ये ख़्वाब डराता है मुझे
कोई साया लिए जाता है मुझे

ये सदा काश ! उसी ने दी हो
इस तरह वो ही बुलाता है मुझे

मैं खिंचा जाता हूँ सहरा की तरफ़
यूँ तो दरिया भी बुलाता है मुझे

देखना चाहता हूँ गुम होकर
क्या कोई ढूँढ के लाता है मुझे

मैं ही कमज़ोर इरादे का हूँ
छत का पंखा तो बुलाता है मुझे

इश्क़ बीनाई बढ़ा देता है
जाने क्या-क्या नज़र आता है मुझे
</poem>
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