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|रचनाकार=विकास शर्मा 'राज़'
}}
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हाथ पर हाथ रख के क्यों बैठूँ
धूप आएगी कोई साया बुनूँ
पाँव ज़ंजीर चाहते हैं अब
जितनी जल्दी हो अपने घर लौटूँ
हाँ, ये रुत साज़गार है मुझको
मैं इसी रुत में ख़ुश्क हो जाऊँ
एक नश्शा है ये उदासी भी
और मैं इस नशे का आदी हूँ
उसने शादी का कार्ड भेजा है
सोचता हूँ ये इम्तहाँ दे दूँ
</poem>
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हाथ पर हाथ रख के क्यों बैठूँ
धूप आएगी कोई साया बुनूँ
पाँव ज़ंजीर चाहते हैं अब
जितनी जल्दी हो अपने घर लौटूँ
हाँ, ये रुत साज़गार है मुझको
मैं इसी रुत में ख़ुश्क हो जाऊँ
एक नश्शा है ये उदासी भी
और मैं इस नशे का आदी हूँ
उसने शादी का कार्ड भेजा है
सोचता हूँ ये इम्तहाँ दे दूँ
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