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|संग्रह=ककबा करैए प्रेम / निशाकर
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<poem>

लगइए
कतेक फुरसतिसँ गढ़लक
प्रकृति
रूप, रंग आ रससँ पूर्ण बनेलक
अहाँकें
मुदा,
लगइए हमरा
प्रेम नहि भेल अहाँसँ
झंझट कीनि लेलहुँ।
अहाँसँ
प्रेम कयनिहार सभक
आँखिक बनि गेलहुँ
काँट
ओ सभ
हमर शोणितक पियासल लगैए।

लगैए
छिना जाइत छैक
चैन तखन हासिल होइत छैक
प्रेम।

</poem>
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