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{{KKRachna
|रचनाकार=प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'
|अनुवादक=
|संग्रह=तुमने कहा था / प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'
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<poem>
तेरी नवाज़िशों का करम बेहिसाब है
अपनी हर एक बात का तू खुद जवाब है

क्या पूछता हो कैसे गुज़रती है इन दिनों
बस मैं हूँ और गर्दिशे जामे शराब है

पहले भी मिल चुके हैं कई बार आप से
शर्मा रहे हैं आप ये कैसा हिजाब है

भेजा गया है मुझको मेरा ख़त ही फाड़कर
मेरी शिकायतों का ये कैसा जवाब है

तुझको ख़बर भी है मेरे हमदम मेरे हबीब
तेरे मरीज़े-इश्क़ की हालत खराब है

मेरी ख़ता ने मुझको फ़लक से गिरा दिया
तेरे करम का सिलसिला तो बेहिसाब है

ऐसी नज़र से ग़ैर ने देखा है आपको
आंखें बता रही हैं कि नीयत खराब है

'अंजान' जिसकी आंख में शर्मो हया न हो
दरकार उसके वास्ते होता हिजाब है।
</poem>
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