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|संग्रह=लम्हों का लम्स / मेहर गेरा
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<poem>
आंगन में फिर वो सुब्ह का मौसम न आयेगा
सूरज के साथ फूल सा पैकर न आयेगा

साये में जिसके धूप से बचकर पनाह ली
क्या पेड़ मुझको याद वो अक्सर न आयेगा

मैं क्यों नदी से राज़ कहूँ ऊनी प्यास का
अब मेरे रास्ते में समंदर न आयेगा

वो पेड़ जिसपे फल कोई अब तक नहीं लगा
उस पेड़ पर कभी कोई पत्थर न आयेगा

इसको ही ज़िन्दगी की हक़ीक़त समझ के जी
ये वक़्त जब गया तो पलट कर न आयेगा।

</poem>
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