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03:46, 29 सितम्बर 2018 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=मेहर गेरा
|अनुवादक=
|संग्रह=लम्हों का लम्स / मेहर गेरा
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
गहरे पानी में फिर उतर जाऊं
इस नदी को भी पार कर जाऊं
जंगलों में भटक के देख लिया
सोचता हूँ अब अपने घर जाऊं
एक ही शक्ल है निगाहों में
जिस तरफ देखूं मैं जिधर जाऊं
शायद इस रूप में वो अपना ले
फूल बन जाऊं मैं निखर जाऊं
ज़र्द पत्तों से दोस्ती कर लूं
जब हवा आये मैं बिख़र जाऊं
</poem>