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गहरे पानी में फिर उतर जाऊं / मेहर गेरा
Kavita Kosh से
गहरे पानी में फिर उतर जाऊं
इस नदी को भी पार कर जाऊं
जंगलों में भटक के देख लिया
सोचता हूँ अब अपने घर जाऊं
एक ही शक्ल है निगाहों में
जिस तरफ देखूं मैं जिधर जाऊं
शायद इस रूप में वो अपना ले
फूल बन जाऊं मैं निखर जाऊं
ज़र्द पत्तों से दोस्ती कर लूं
जब हवा आये मैं बिख़र जाऊं