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05:47, 29 सितम्बर 2018 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=[[अजय अज्ञात]]
|अनुवादक=
|संग्रह=इज़हार / अजय अज्ञात
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
यहाँ खतरे में सब की आबरू है
फ़ज़ा जाने ये कैसी चारसू है
समय के वेग से आगे निकल कर
ख़बर बनने की सब की आर्ज़़ू है
जिसे तुम ढूड़ते हो मंदिरों में
मिला मुझ को वो माँ में हूबहू है
पिता के रूप में मुझ से क़सम से
मसीहा रोज़ होता रूबरू है
किसे छू कर चली आईं हवाएँ
फ़ज़ा भी हो गई अब मुश्कबू है
</poem>