भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यहाँ खतरे में सब की आबरू है / अजय अज्ञात

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
यहाँ खतरे में सब की आबरू है
फ़ज़ा जाने ये कैसी चारसू है

समय के वेग से आगे निकल कर
ख़बर बनने की सब की आर्ज़़ू है

जिसे तुम ढूड़ते हो मंदिरों में
मिला मुझ को वो माँ में हूबहू है

पिता के रूप में मुझ से क़सम से
मसीहा रोज़ होता रूबरू है

किसे छू कर चली आईं हवाएँ
फ़ज़ा भी हो गई अब मुश्कबू है