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{{KKRachna
|रचनाकार=अजय अज्ञात
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|संग्रह=जज़्बात / अजय अज्ञात
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<poem>
होता हुआ आसान सफ़र देख रहा हूँ
मैं माँ की दुआओं का असर देख रहा हूँ

शब ग़म की गुज़र जायेगी जल्दी ही यक़ीनन
मैं आती हुई एक सहर देख रहा हूँ

अम्नो अमाँ से रहते थे सब लोग जहाँ पर
उस बस्ती में जलते हुए घर देख रहा हूँ

हत्या कहीं पे रेप कहीं आगज़नी की
अख़बार में रोज़ाना ख़बर देख रहा हूँ

हिंदी है मेरी माँ तो है उर्दू मेरी मौसी
तहज़ीब का मैं फलता शजर देख रहा हूँ
</poem>
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