भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
होता हुआ आसान सफ़र देख रहा हूँ / अजय अज्ञात
Kavita Kosh से
होता हुआ आसान सफ़र देख रहा हूँ
मैं माँ की दुआओं का असर देख रहा हूँ
शब ग़म की गुज़र जायेगी जल्दी ही यक़ीनन
मैं आती हुई एक सहर देख रहा हूँ
अम्नो अमाँ से रहते थे सब लोग जहाँ पर
उस बस्ती में जलते हुए घर देख रहा हूँ
हत्या कहीं पे रेप कहीं आगज़नी की
अख़बार में रोज़ाना ख़बर देख रहा हूँ
हिंदी है मेरी माँ तो है उर्दू मेरी मौसी
तहज़ीब का मैं फलता शजर देख रहा हूँ