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03:58, 30 सितम्बर 2018 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अजय अज्ञात
|अनुवादक=
|संग्रह=जज़्बात / अजय अज्ञात
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<poem>
अच्छा लगता है हमें गौहर निकलते देखना
ख़ुद से ही औलाद को बेहतर निकलते देखना
बज़्म में कुछ चीटियों के पर निकलते देखना
बौने क़द वालों के ऊंचे सर निकलते देखना
मूँद कर आँखें, फ़क़त कानों ही से अपने कभी
शेर में जज़्बात को बाहर निकलते देखना
ढूंढ़ कर वो यंत्र लाओ जिस से मुम्किन हो सके
आत्मा का जिस्म से बाहर निकलते देखना
ख़ूबसूरत कोई मंज़र देखना चाहो अगर
भोर में उठकर कभी दिनकर निकलते देखना
</poem>