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{{KKRachna
|रचनाकार=अजय अज्ञात
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|संग्रह=जज़्बात / अजय अज्ञात
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<poem>
हर वक़्त दिल पे जैसे कोई बोझ-सा रहा
दिन-रात कोई बात यूँ मैं सोचता रहा

जो अपनी बदनसीबी नहीं और क्या कहूँ
रह कर नदी के पास भी प्यासा सदा रहा

अश्आर बा-असर हुए मेरी ग़ज़ल के सब
ख़ूं में डुबो के लेखनी लिखता सदा रहा

वो शख़्स कामयाब नहीं हो सका कभी
जो दूसरों के नक़्शे-क़दम ढूँढ़ता रहा

क़दमों में उस के आ गईं ख़ुद चल के मंज़िलें
जो ख़्वाब पूरा करने की ज़िद पर अड़ा रहा
</poem>
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