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हर वक्त दिल पे जैसे कोई बोझ सा रहा / अजय अज्ञात
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हर वक़्त दिल पे जैसे कोई बोझ-सा रहा
दिन-रात कोई बात यूँ मैं सोचता रहा
जो अपनी बदनसीबी नहीं और क्या कहूँ
रह कर नदी के पास भी प्यासा सदा रहा
अश्आर बा-असर हुए मेरी ग़ज़ल के सब
ख़ूं में डुबो के लेखनी लिखता सदा रहा
वो शख़्स कामयाब नहीं हो सका कभी
जो दूसरों के नक़्शे-क़दम ढूँढ़ता रहा
क़दमों में उस के आ गईं ख़ुद चल के मंज़िलें
जो ख़्वाब पूरा करने की ज़िद पर अड़ा रहा