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04:07, 30 सितम्बर 2018 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अजय अज्ञात
|अनुवादक=
|संग्रह=जज़्बात / अजय अज्ञात
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{{KKCatGhazal}}
<poem>
मिट्टी का ख़िलौना क्यूँ ख़ुद ही से हिरासां है
किरदार पे वो अपने क्यूँ इतना पशेमां है
पैसा भी बहुत जोड़ा सामां भी बहुत जोड़ा
लेकिन वो नहीं जोड़ा जीने का जो सामां है
है बर्ग तरो ताज़ा और तेज़ हवाएँ भी
नाजुक सी नयी डाली इस सोच से लरजां है
दुनिया के झमेलों से फुर्सत ही नहीं मिलती
कुछ शे‘र जो कह पाया तनहाई का अहसां है
पहले भी ‘अजय’ इसने देखा है बहुत है मुझको
फिर आज ये आईना किस बात पे हैरां है
</poem>