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04:19, 30 सितम्बर 2018 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अजय अज्ञात
|अनुवादक=
|संग्रह=जज़्बात / अजय अज्ञात
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{{KKCatGhazal}}
<poem>
मुद्दत के बाद दोस्त पुराना मिला मुझे
मर्कज़ पे जैसे वक़्त ही ठहरा मिला मुझे
मुद्दत के बाद आईने के रू-ब-रू हुआ
हैरां था मेरा अक्स भी धुँधला मिला मुझे
वो ऐब ही गिनाता रहा मेरे हर घड़ी
दुनिया की भीड़ में कोई अपना मिला मुझे
गीता की यूँ ही झूठी क़सम खा रहे थे सब
इक बेजुबान शख़्स ही सच्चा मिला मुझे
जो आरजू-ए-हुस्न में दिल था मचल गया
‘अज्ञात’ कुछ ही दिन में वो टूटा मिला मुझे
</poem>