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04:20, 30 सितम्बर 2018 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अजय अज्ञात
|अनुवादक=
|संग्रह=जज़्बात / अजय अज्ञात
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<poem>
हाथों में कुल्हाड़ी को देखा तो बहुत रोया
इक पेड़ जो घबरा कर रोया तो बहुत रोया
जब पेड़ नहीं होंगे तो नीड़ कहाँ होंगे
इक डाल के पंछी ने सोचा तो बहुत रोया
दम घुटता है सांसों का, जीयें तो जियें कैसे
इंसान ने सेहत को खोया तो बहुत रोया
जाने ये मिलाते हैं क्या ज़ह्र-सा मिट्टी में
इक खिलता बग़ीचा जब उजड़ा तो बहुत रोया
हंसता हुआ आया था दर्या जो पहाड़ों से
‘अज्ञात’ वो नगरों से गुज़रा तो बहुत रोया
</poem>