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04:30, 30 सितम्बर 2018 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अजय अज्ञात
|अनुवादक=
|संग्रह=जज़्बात / अजय अज्ञात
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<poem>
रास्ते के पत्थरों के रोकने से कब रुका
ठोकरें खा कर गिरा, गिर कर उठा, मैं चल पड़ा
मंज़िलों का दूर तक कोई न था नामो-निशां
मैं सराबों का सफ़र तय दूर तक करता रहा
सोच का जब दायरा उस ने किया थोड़ा वसीअ
तब कहीं मफ़हूम मेरे शे‘र का उस पर खुला
दौलते विज्दान ख़ातिर ज़ह्न को बेदार कर
ज़ाविया दिल का बदल ले जिं़दगी हो ख़ुशनुमा
ज़ह्न में अलफ़ाज़ फिर से रक़्स हैं करने लगे
फ़िक्र की गहराइयों में फिर ‘अजय’ खोने लगा
</poem>