भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रास्ते के पत्थरों के रोकने से कब रुका / अजय अज्ञात
Kavita Kosh से
रास्ते के पत्थरों के रोकने से कब रुका
ठोकरें खा कर गिरा, गिर कर उठा, मैं चल पड़ा
मंज़िलों का दूर तक कोई न था नामो-निशां
मैं सराबों का सफ़र तय दूर तक करता रहा
सोच का जब दायरा उस ने किया थोड़ा वसीअ
तब कहीं मफ़हूम मेरे शे‘र का उस पर खुला
दौलते विज्दान ख़ातिर ज़ह्न को बेदार कर
ज़ाविया दिल का बदल ले जिं़दगी हो ख़ुशनुमा
ज़ह्न में अलफ़ाज़ फिर से रक़्स हैं करने लगे
फ़िक्र की गहराइयों में फिर ‘अजय’ खोने लगा